सोमवार, 30 अप्रैल 2012





संतुष्ट हुए तो प्रोग्रेस रुकी


बातचीत
जितेन पुरोहित
फिल्म निर्देशक/ लेखक और अभिनेता

जिंदगी में सबकुछ बेहतर होते-होते अचानक मुसीबत का पहाड़ टूटना किसी का भी मनोबल तोड़ सकता है, लेकिन कुछ लोग दुबारा उठ खड़े होते हैं, फिर से चलने के लिए/अधूरे अरमान पूरे करने के लिए। गोया; ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले!’ जितेन पुरोहित की जिंदगी में भी अचानक ऐसा ही घटित हुआ था, जब वे कोमा में चले गए थे। जब वे बिस्तर से उठे, तो जैसे सारे स्वप्न बिखर-से चुके थे; लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और फिर कदम बढ़ा दिए अपनी तयशुदा राह में। जितेन पुरोहित हिंदी और गुजराती दोनों फिल्म इंडस्ट्री का चर्चित नाम। हरफनमौला नाम। जो चाहा, वो पाया; जैसा चाहा, वैसा किया-निर्देशन में भी नाम कमाया, बतौर प्रोड्यूसर पैसा कमाया; फिल्में लिखीं, तो सराहना पाई और अभिनय किया, तो दर्शकों का प्यार और सम्मान बंटोरा लेकिन फिलहाल, वे महज अभिनय कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें कोमा के बाद तन को फिर से दुरुस्त करना है, ताकि तन-मन के बेहतर तालमेल से फिर कुछ बड़े प्रोजेक्ट पर कार्य शुरू हो सके। इलाहाबाद में अकसर इलाहाबादी की फिल्म ‘ये रात फिर न आएगी’ के सेट पर जितेन पुरोहित अपने काम पर खूब बोले।


सिनेमा और रंगमंच दोनों में संयुक्त रूप से करीब 25 वर्ष के अनुभव पर जितेन कुछ यूं प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं-‘मैं मानता हूं कि; किसी भी व्यक्ति को अपने कार्य से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। दरअसल, जब वो भीतर से संतुष्ट हो जाता है, तो बाहर की सारी प्रोग्रेस रुक जाती है। यही वजह है कि मैंने भी कभी संतुष्टि हासिल करना नहीं चाही। हां, लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी से फिल्म इंडस्ट्री में गुजारे इन 25 वर्षों में मैंने जो सोचा था; मुझे वो मिला-पैसा मिला, नाम मिला। मैंने इन वर्षों के दरमियान इंडस्ट्री में बहुत काम किया है। बतौर लेखक, निर्देशक, अभिनेता, सहायक निर्देशक खूब काम किया। दर्शकों और सिनेमा जगत में एक अच्छा मुकाम पाया। हालांकि मैं यह नहीं कहता कि; मुझे इंडस्ट्री के शतप्रतिशत लोग पहचानने लगे हैं, लेकिन हां; 75 फीसदी भी मेरे काम को जानते हैं, मुझे पहचानते हैं, यह मेरे लिए बहुत है। जैसे जिंदगी के दो पहलू होते हैं-सुख और दु:ख; सो मेरी जिंदगी में भी कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन फिर भी मैं खुश हूं। क्योंकि यह हमारी जिंदगी का हिस्सा है, हम इन्हें नकार नहीं सकते। आज मैं जिस मुकाम पर खुद को देख रहा हूं, उससे खुश हूं।

जितेन के निर्देशन में निर्मित गुजराती फिल्म ‘दलडू चौरायू धीरे-धीरे (2002)’ को ‘गुजराती फिल्म स्टेज अवार्ड’ में विभिन्न श्रेणियों के लिए पांच अवार्ड मिले थे। जितेन इस फिल्म के लेखक भी थे। वे वर्ष, 2010 में रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘दीवानगी ने हद कर दी’ के निर्देशक के अलावा प्रोड्यूसर और लेखक भी थे। मेरी आशिकी (2005) में निर्देशकीय और स्क्रीन प्ले का दायित्व निभा चुके जितेन कई फिल्मों में चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर भी रह चुके हैं जैसे- कृष्णा (1996), गोपी किशन (1994), चौराहा (1994) और मैडम-एक्स (1994)। यानि सिनेमा की तमाम विधाओं में अपना हुनर दिखाने के बावजूद जितेन स्वयं को निर्देशन करते वक्त अधिक सुकून महसूस करते हैं क्यों? वे मन की बात रखते हैं-‘मेरा पहला प्यार निर्देशन है। मेरा मानना है कि; एक निर्देशक जो सुनाता है, जो दिखाना चाहता है; सिनेमा हाल के अंधेरे में चुपचाप बैठे हजारों दर्शक ठीक वैसा ही महसूस करते हैं। यानि निर्देशक का विजन ही दर्शक का नजरिया बन जाता है। यह एक अत्यंत कठिन कार्य है, मुझे इसमें आनंद आता है, खुशी मिलती है।’

गुजराती या हिंदी किस फिल्म विधा में जितेन खुद को कम्फर्ट महसूस करते हैं? जितेन दार्शनिक लहजे में बोलते हैं-‘एक अभिनेता को इससे कोई लेना-देना नहीं होता कि; वो किस भाषा में काम कर रहा है। आप मुझसे हिंदी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, भोजपुरी किसी भी भाषा की फिल्म में अभिनय करने को कहेंगे, तो अच्छा लगेगा। हां, जहां तक परम-सुख की बात है, तो चूंकि मैं गुजराती हूं, सो गुजराती पिच पर खेलना अधिक आनंदकर है। शायद यही वजह है कि वहां मेरे काम को ज्यादा सराहा गया, लोगों का लगाव अधिक है।’

जितेन ने ‘सिनेमाई संघर्ष’ के दौरान मुंबई में रंगमंच को भी खूब समय दिया है। उनके खाते में लगभग 100 से अधिक शो शामिल होंगे, जिनमें उन्होंने अभिनय किया। रंगमंच कितना सार्थक साबित हुआ; उनके फिल्म अभिनय के दौरान? इस प्रश्न पर वे थियेटर और फिल्म दोनों विधाओं का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं-‘यह सच है कि अब मैं रंगमंच को समय नहीं दे पाता, लेकिन शुरुआती दौर में खूब प्ले किये। उस समय मुझे एक शो के 10 रुपए और रम के दो पैग मिलते थे। बहरहाल, दोनों विधाओं की तकनीक में बहुत फर्क है। थियेटर मीडिया एक्टर का मीडिया है, जबकि फिल्म मीडिया डायरेक्टर का। यानि थियेटर में एक्टर के कांधे पर अधिक जिम्मेदारी होती है, प्ले को सफल बनाने की, जबकि फिल्म में डायरेक्टर का दायित्व अधिक। मैं दोनों विधाओं से जुड़ा रहा हूं और जुड़ा हूं। इसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं कि रंगमंच से निकला कलाकार मंझा हुआ होता है, लिहाजा वह पर्दे पर भी अच्छा काम कर लेता है। यानि यह एक प्लस पाइंट है। रंगमंच में अभिनेता को लाउड होना पड़ता है, जबकि फिल्म में अंडर प्ले करना होता है। यदि रंगमंच से आए कलाकार को दोनों तकनीक का ज्ञान न हो, तो फिल्म निर्देशक को उससे काम निकलवाने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। तमाम दिक्कतें आती हैं।’

जितेन के जेहन में भविष्य को लेकर क्या चल रहा है? वे स्पष्ट करते हैं-‘चलते-चलते जिंदगी कब थम-सी जाए, कोई नहीं कह सकता। दुर्भाग्य से मेरे संग भी यही हुआ। नवंबर 2010 में दीवानगी ने हद कर दी की रिलीज के बाद मेरे पास दो बड़े प्रोजेक्ट थे। पहला चलो चाय पीते हैं और दूसरा रोमांस लव और लफड़ा। रोमांस...के गाने तो फ्लोर पर जाने वाले थे। अचानक मैं कोमा में चला गया। होश आया, तो डॉक्टरों के कहने पर काम से कम्पल्सरी वेकेशन लेना पड़ा। फिलहाल मैं वेकेशन पीरियड में चल रहा हूं, इसलिए कोई स्ट्रेसफुल वर्क नहीं करना चाहता। इसलिए अभी सिर्फ अभिनय ही कर रहा हूं।’ आप मुझे युवा फिल्मकार अकसर इलाहाबादी की फिल्म ‘ये रात फिर न आएगी’ में मुख्य विलेन की भूमिका में देख पाएंगे। इस फिल्म का विषय अत्यंत रोचक है। मुझे इस फिल्म की टीम से जुड़ने में बहुत खुशी हुई। फिल्म के प्रोड्यूसर संजय शर्मा बाबा और कल्पेश पटेल हैं। संजय कोरियोग्राफर भी हैं। इस फिल्म का गीत अमिताभ क. बुधौलिया ने लिखा है। सभी युवा हैं और टैलेंट से लबरेज। हाल में इस फिल्म की शूटिंग इलाहाबाद में पूरी की है। फिल्म मई के अंत या जून में रिलीज होगी। दूसरा एक भोजपुरी फिल्म सेज तैयार सजनिया फरार भी पूरी की है। इसमें आपको मैं एक्शन इमेज में नजर आऊंगा।

जब मैं शारीरिक तौर पर पूरी तरह से फिट हो जाऊंगा, तो मेरा एक ड्रीम प्रोजेक्ट है, उस पर काम शुरू करूंगा। यह एक साइलेंट मूवी है। इसके लिए मैंने केके मेनन से बात की है। तब्बू से बात करनी है। दूसरा मैं अकसर इलाहाबादी के साथ कुछ और प्रोजेक्ट प्लान करना चाहूंगा, क्योंकि उस बंदे में गजब का टैलेंट है।

जितेन आखिर में कहते हैं- मैं उन लोगों का आभार कभी नहीं भूल सकता, जिन्होंने मुझे जितेन बनाया। सबसे पहले मैं नाम लेना चाहूंगा आसिमाजी का, जिन्होंने मुझे सगे बेटे से भी ज्यादा प्यार दिया। मुंबई में उन्होंने ही मुझे मनोबल दिया, मेरे करियर में हेल्प की। मैंने उनके सम्मान में अपने प्रोडक्शन हाउस का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया है।

दूसरा मेरी क्रियेटिव प्रोड्यूसर और दोस्त अमीषा सठवारा का। यदि अमीषा मुझे समय पर अस्पताल न पहुंचाती, तो शायद मैं कोमा से कभी बाहर नहीं निकल पाता, या जिदंगी मुझसे रूठ जाती।

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