खौफ यहाँ भी है और वहां भी... अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'पिछले गुरुवार के दोपहर की बात है, सीमा मलिक का फ़ोन आता है। वे चाहती थीं कि मैं फिल्म
'अ वेन्ज़डे ' जरूर
देखूं और उस पर कुछ लिखूं। सीमा इस फिल्म में एक पुलिस अफसर की बीवी बनी हैं। अमूमन हर फिल्म अभिनेता/ अभिनेत्री पत्रकारों को इस गर्ज से फोन लगाते हैं कि वे फिल्म देखें और उनके किरदार पर अपनी टीका-टिप्पणी करें, ताकि उनके अभिनय का सटीक मूल्यांकन हो सके, लेकिन यहां ऐसा नहीं था। सीमा चाहती थीं कि यह फिल्म हर वो भारतीय देखे, जिसके भीतर थोड़ी -बहुत भी मानवीय संवेदना मौजूद है। इसे एक कलाकार का देश और समाज के प्रति नैतिक कर्तव्य भी मान सकते हैं। सीमा से बातचीत के कुछ दिन पहले दैनिक भास्कर (
भोपाल) के नियमित कालम
'पर्दे के पीछे' में जयप्रकाश चौकसे ने भी लिखा था कि, यह फिल्म हर
भारतीय को देखनी चाहिए। मैं इस कालम का नियमित पाठक हूं, सो, यह ठीक से जानता था कि जयप्रकाश चौकसे जब भी किसी फिल्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हैं, तो उसमें गंभीरता का गहरा भाव निहित होता है। ऐसे में सीमा का आग्रह दिल-ओ-दिमाग को उद्देलित कर गया कि आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है? सीमा भोपाल से ताल्लुक रखती हैं और भोजपुरी फिल्मों की बड़ी स्टार मानी जाती हैं।
खैर, जब '
अ वेन्ज़डे' देखी, तो स्प्ष्ट हो गया कि जयप्रकाश चौकसे और सीमा मलिक ने क्यों चाहा कि हर भारतीय यह फिल्म देखे? हिंदी सिनेमा पर 'दंगाई संस्कृति' का गहरा प्रभाव रहा है। दंगा को संस्कृति से इसलिए जोड़ रहा हूं, क्योंकि दंगाइयों में पाशविक विचार और आचरण एक प्रायोजित और सुनियोजित तौर-तरीकों से रोपित किए जाते हैं। उनके संस्कारों में क्रूरता और हिंसा के बीज बोए जाते हैं। कोई लाख कहे कि दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता, लेकिन जो सच है, झुठलाया नहीं जा सकता। दंगे के दौरान लूटपाट या अपनी दुश्मनी निकालने वाले ज्यादातर लोग जरूर अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि वे दंगाई संस्कृति के अनुयायी नहीं होते...वे तो मौकापरस्त कहलाएंगे। जबकि दंगाइयों को लूटपाट से नहीं, हिंसा से संतुष्टि मिलती है।
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा मुल्क होगा, जो हिंसा से अछूता हो! यह हिंसा सामान्य अपराध की श्रेणी में तो कतई नहीं आती। दंगे का आकार और प्रकार कुछ भी हो सकता है, लेकिन सबका मूल साम्प्रदायिक वर्चस्व या नस्लभेद ही है। अगर कोई इस तर्क से सहमत नहीं है, तो कोई एक ऐसा दंगा बता दे, जो मजहबी वर्चस्व या नस्लभेद या जातिगत ऊंच-नीच की वजह से न हुआ हो? यह दीगर बात है कि किसी भी प्रकार की हिंसा इनसानियत और मानव सभ्यता के लिहाज से उचित नहीं है, बल्कि यह घातक है। बावजूद मानव सभ्यता के साथ ही हिंसा का भी जन्म हो गया था। जीव-जगत हिंसा से परे कभी नहीं रहा।
बहरहाल, '
अ वेन्ज़डे' कोई देखे या न देखे, लेकिन दंगा संस्कृति में रचे-बसे हिंसक प्राणियों और उनके परिजनों को जरूर देखनी चाहिए। फिल्म इस वजह से खास नहीं है कि इसकी पटकथा में कसावट है या अनुपम खेर और नसरुद्दीन शाह का अभिनय बेहद प्रभावी है...फिल्म इसलिए देखने की जरूरत है, क्योंकि यह एक आम आदमी का आतंक से निपटने का एक आतंकी प्रयास है। इसे प्रशासनिक नज़रिए से एक नए आतंक का उदय भी कहा जा सकता है। संभव है कि फिल्म के डायरेक्टर नीरज पांडे के इस
'पलटवार तौर-तरीके' से सैकडों हिंदुस्तानी सहमत भी हों? फिल्म इस वजह से भी खास बन पड़ी है,
क्योंकि इसमें पुलिस, मीडिया और सरकार पर अंगुली उठाने की बजाय, उनमें आतंकवाद के निर्मूलन के प्रति एक सोच-विचार एवं एक ही तौर-तरीका अख्तियार करने के प्रति मौन स्वीकृति दिखाई गई है। अहिंसावाद के अनुयायी 'अ वेन्ज़डे' को शायद ही पचा पाएं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हर चीज और हर आचार-विचार की एक सीमा होती है, आतंकवाद 'गांधीगीरी' की लिमिट से बाहर है।
यहां इसी मु्द्दे पर अनुराग कश्यप की फिल्म
'ब्लैक फ्राइडे' का भी जिक्र भी लाजिमी है। 1993 में मुंबई में हुए बम धमाकों पर बनी यह फिल्म दंगाई संस्कृति से संस्कारित लोगों के दिलो-दिमाग का पोस्टमार्टम कही जा सकती है। यह फिल्म भी दंगाइयों/ आतंकवादियों के परिजनों और उनके पालनहारों के लिए एक सबक है । इस फिल्म में भोपाल के ही राज अर्जुन ने छोटा, किंतु सशक्त किरदार निभाया है। राज जब भी सिनेमा पर चर्चा करते हैं, तो वे इस फिल्म का जिक्र करना नहीं भूलते। काफ़ी समय तक इस फिल्म पर बेन लगा रहा। जब तक उस पाबंदी हटी, अफसोस! लोगों का उस पर से ध्यान हट चुका था। 'ब्लैक फ्राइडे' और 'अ वेन्ज़डे' दोनों ही फिल्में एक ही विषय पर रची गई हैं, लेकिन दोनों के भाव अलग हैं। ब्लैक फ्राइडे बम धमाकों के आरोपियों में पुलिसिया खौफ की एक बानगी है। धमाकों के बाद पुलिस से भागते आतंकी और उनके परिजनों पर पुलिस का कहर यह बताने का प्रयास था कि निडर कोई नहीं है, न आम आदमी और न आतंकवादी। दूसरों का कत्ल करने वाले भी मौत से खौफ खाते हैं।