शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

आतंकवाद की आग पर राजनीतिक रोटियों की सिकाई


...फिर कौन है देशद्रोही?

  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
मुंबई के मुस्लिम बहुल इलाकों में आतंकवादियों के प्रति नफरत जाहिर करना जानलेवा भी साबित हो सकता है। अकेली मुंबई नहीं, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में मुस्लिम बस्तियों में हिंदुस्तानी होने जैसे कोई भाव नजर नहीं आते। आप इन बस्तियों में एक अच्छे और देशभक्त भारतीय होने का साहस नहीं दिखा सकते, खासकर तब जब चर्चा या बहस का विषय आतंकवाद या पाकिस्तान हो। मुंबई का उदाहरण इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि देश की यह आर्थिक राजधानी हमेशा से आतंकवादियों के निशाने पर रही है। मैंने खुद इन बस्तियों में पाकिस्तानी रंग देखे हैं। यह बात मुंबई में 1993 में हुए बम विस्फोटों और दंगों के बाद की है। शायद 96 या 97 में अपने एक मित्र के साथ मुंबई घूमने गया था। मित्र के एक मुस्लिम परिचित थाणे इलाके की किसी बस्ती में रहते थे। हम दोनों तीन-चार दिन वहीं ठहरे। हम जितने दिन भी वहां रुके, मन में एक अज्ञात भय हमेशा बना रहा। यह भय हमारे हिंदू और हिंदुस्तानी होने की वजह से था।

मुद्दा यह नहीं है कि भारत में रहने वाली मुस्लिम कौम भारतीय कहलाने में गर्व क्यों महसूस नहीं करती, चिंता इसकी है कि अब हिंदू और मुसलमानों के बीच इतनी अधिक दूरी बढ़ चुकी है कि, भारत कहीं से भी धर्मनिरपेक्ष देश दिखाई नहीं देता। हम लाख कहते रहें, लेकिन कड़वा सच यही है कि हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता के भाव काफूर और काफिर हो चले हैं। भारत कभी भी सांप्रदायिक सौहार्द्र की कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतरा। आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता का क्या हश्र हुआ और क्या हो रहा है, यह जगजाहिर है। दुःखद और विडंबना यह है कि अब हर गली, हर शहर साम्प्रदायिक नफरत की हद में आ चुका है। साम्प्रदायिक अलगाववाद की आग से अकेला कश्मीर नहीं, कन्याकुमारी तक हिंदुस्तान झुलसा पड़ा है। जहां कहीं भी मुस्लिम बहुलता है, वहां दंगे होते रहे हैं या हमेशा कोशिशें जारी रहती हैं। बेशक दोष अकेले इस संप्रदाय का नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य, हर देशद्रोही हादसों में इन्हीं पर अंगुलियां उठती रही हैं। हिंदुओं के प्रति नफरत की कई वजहें हो सकती हैं, लेकिन अपने देश से घृणा? कुछ समझ नहीं आता, आखिर देशद्रोही कौन है?

हाल में दिल्ली में हुए बम विस्फोटों के बाद भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि और अधिक धूमिल हुई है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हर हादसे के पीछे एक मुस्लिम चेहरा/सोच और इरादा दिखाई दिया। दरअसल, आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीतिक दल सदैव दो ध्रुवों में बंटे रहते हैं। मुस्लिम और हिंदू वोट बैंक का लालच इसकी मूल वजह रहा है। एक पार्टी बिना सोचे-समझे वर्षों से समूची मुस्लिम कौम को आतंकवादी ठहराने पर आमदा है, वहीं दूसरी पार्टी दोषियों को सिर्फ इस वजह से बचाने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती क्योंकि वे उनका वोट बैंक हैं। सिर्फ वोट बंटोरने के मकसद से किसी सम्प्रदाय या संगठन का विरोधी या समर्थक होना देश के हित में कतई नहीं हैं। इसे भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी कहें, या राजनीति की गंदे सिद्धांत/सोच, पिछले कुछ सालों से आतंकवाद का नया रूप सामने आया है। मामला 13 दिसंबर, 2001 में भारतीय संसद पर हुए आतंकी हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु का हो या दिल्ली धमाके के मोस्ट वांटेड अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर का, एक प्रायोजित और सुनियोजित तरीके से समूची दुनिया के सामने भारत की साख पर बट्टा लगाने के प्रयास जारी हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि वोट बैंक की गर्ज से कुछ पार्टियां भी उनकी इस मुहिम को खुलकर या अंदरूनी तौर पर समर्थन दे रही हैं। अफजल गुरु को देशद्रोह साबित हो जाने के बावजूद फांसी नहीं दी जा सकी है। गुरु को बचाने के लिए कई संगठन दुनियाभर में हायतौबा मचाए हुए हैं। हैरानी इसमें नहीं कि गुरु को रिहा कराने के लिए कश्मीरी मुस्लिम नेता दिल्ली से लेकर लंदन तक अभियान छेडे हुए हैं, इस गंदे खेल में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें गुरु के गद्दार होने को लेकर कोई शंका नहीं है। समर्थन के पीछे सिर्फ सत्ता का लालच काम कर रहा है। अब यही खेल तौकीर को लेकर खेला जा रहा है। तौकीर की मां जुबैदा कुरैशी चीख-चीखकर मीडिया के सामने अपने बेटे को निर्दोष कह रही हैं, जबकि 2001 में वे उससे नाता तोड़ चुकी हैं।

1993 में मुंबई में हुए बम विस्फोटों के बाद भी आरोपियों को बचाने यही राजनीतिक पैंतरा अपनाया गया था। कौन दोषी है और कौन निर्दोष? सवाल यह नहीं है, मुद्दा यह है कि आखिर हर जांच के बाद अपने ही पुलिस तंत्र पर अंगुलियां क्यों उठाई जाती हैं? आतंकवादी घटनाओं पर सदैव पुलिस की नाकामी बताकर पल्ला झाड़ लेने की प्रवृत्ति देश के लिए बेहद घातक है। सबसे खतरनाक तब, जब दोषियों के समर्थन में उठ रहे हाथों को शह दी जा रही हो। इसे क्या कहेंगे कि तमाम आतंकी हादसों के बावजूद कांग्रेस सिमी जैसे संगठनों को लेकर चुप्पी साधे बैठी है, लेकिन उडीसा, कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों में ईसाई समुदाय पर हुए हमलों के मामले पर भगवा बिग्रेड पर प्रतिबंध की मांग उठा रही है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन वर्षों से कांग्रेस के निशाने पर रहे हैं।...पर सिमी का क्या किया जाए? क्योंकि सिर्फ केंद्र की चूक के चलते उस पर से प्रतिबंध हटते-हटते रह गया था। पूरा देश और वे लोग भी जो सिमी की वकालत कर रहे हैं, भली-भांति जानते हैं कि यह संगठन आतंकी गतिविधियों में लिप्त है, बावजूद इस पर नकेल नहीं कसी जा सकी है क्यों? कारण आतंकवाद के मुद्दे पर एकजुटता का अभाव। पोटा के मामले में भी यही देखने को मिला । संभव है इस कानून का दुरुपयोग हुआ हो, तो क्या कश्मीर से भी धारा 370 नहीं हटाई जानी चाहिए? आज से नहीं, तब से जब से कश्मीर मुद्दे ने जड़ पकड़ी है, वहां के मुस्लिमजन सेना पर अंगुली उठाते रहे हैं। फिर कश्मीर और अन्य प्रांतों को अलग-अलग तराजू पर क्यों तौला जा रहा है? खासकर तब, जब आतंकवाद का स्वरूप कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक सा हो।

दैनिक भास्कर के संपादकीय पेज (19 सितंबर) पर राजदीप सरदेसाई लिखते हैं-'जब तक ऐसे नरसंहारों को राजनेता विचारात्मक मसलों में तब्दील करते रहेंगे, दहशतगर्द हमेशा जीतेंगे।' पंजाब केसरी में विशेष संपादकीय के तहत अश्विनी कुमार दो टूक कहते हैं-'आतंकवाद का मुकाबला केवल कड़े कानून बनाने से ही नहीं होगा, इसके लिए इच्छाशक्ति का भी होना जरूरी है। यदि संकल्प ही नहीं, तो इच्छाशक्ति कैसे होगी?।' दरअसल, बात पोटा या टाडा की नहीं, राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीयत की है। बात जब देशहित की हो, तो निजी हित विस्मृत कर देने की बहुत जरूरत है।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

amitabh bhai aapka yeh aartical mujhe behad pasand aaya ki aatankwad ki aag par jo hamare desh k neta siyasi rotiyan sek rahe hai. hamere desh k un mahan netaon ko koi yeh bataye ki aatankwadi kisi k sage nahi hote aaj tumhare kal kisi or k. sabhi rajnetik party, sarkar, neta ek-dusre par aarop-pratyarop lagate rehten hain par sabhi ek hi thaali k chhate-batte hain. ya yeh kahein ki chor-chor mosere bhai.

Udan Tashtari ने कहा…

प्रभावी आलेख.

सतीश पंचम ने कहा…

मुद्दे को अच्छे ढंग से पेश किया है...लेकिन कहीं कहीं बात खटकती भी है कि पलडा कहीं पर एक ही ओर झुका लग रहा है।

बेनामी ने कहा…

अमिताभा जी,
राजनीति की नीति तय करने की जिम्‍मेदारी आखिर किसने उन हाथों को सौंपी? जो उसका इस्‍तेमाल केवल सत्‍ता की स्‍वार्थसि‍‍दि़ध के लिए कर रहे है. आखिर राजनीतिक रोटी सेंकने वाले तो देश के और भी कई संकटों के जिम्‍मेदार हैं, पर इसका विश्‍लेषण करने वाला लोकतंत्र का एक और जिम्‍मेदार पाया भी है-मीडिया, जो कहीं न कहीं ऐसे राजनीतिकों के खिलाफ जनमानस को प्रभावी स्‍तर पर निस्‍वार्थ भाव से जागरूक कर पाने में निष्‍फल है. नतीजतन, मीडिया की जिम्‍मेदारी महज सूचनामनोरंजन परोसने भर ही रह गई. फलस्‍वरूप जन की मनोवृति अपने निजी फायदे या भय या गुमराह में वोट डालते है. जब‍कि 50 फीसदी से अधिक आबादी जो खुद को बौद्धिक या पढ़ा-लिखा मानते हैं वे और भी गैर‍-जिम्‍मेदार हैं. जिनमें देश की आत्‍मा मरणासन्‍न स्‍ि‍थति में है.

आपके आलेख के लिए आपको हार्दिक साधुवाद.