मंगलवार, 9 सितंबर 2008

व्यंग्य-कहानी

शायराबाई की उमर


  • अमिताभ बुधौलिया'फरोग'
    हमारे मोहल्ले में एक नई-नवेली दुल्हन की भांति आगमन हुआ था शायराबाई का। उड़ते-उड़ाते सिर्फ इतनी -सी बात कानों तक आई थी, कि वे किसी सरकारी दफ्तर में मुलाजिम हैं और हाल ही में उनका यहां तबादला हुआ है। शायराबाई का आना क्या हुआ, मानो बूढ़ों की भी जवानी लौट आई थी। सालों से बंद पड़ीं खिड़कियां, जो अभी तक सिर्फ इस वजह से नहीं खुलती थीं कि कहीं टूटी-फूटी पड़ी सीवेज लाइन की दुर्गंध और मच्छरों का झुंड घरों में बीमारियां न ले आए, शायराबाई के आने के बाद से बेधड़क चैबीसों घंटे खुली रहने लगी थीं। इन खिड़कियों से बड़े-बूढ़े और जवान सभी के ताकने-झांकने का सिलसिला चल पड़ा था। मच्छरों और गंदगी से बीमारियों का डर मानों मिट-सा गया था। या यूं कहिए, शायराबाई की सिर्फ एक झलक पाने की खातिर पड़ोसियों में जोखिम उठाने का साहस पैदा हो गया था।

एक रोज अलसुबह अपने घर पर मोहल्ला सुधार समिति के स्वयंभू मुखिया पोपले साहब की मौजूदगी से मैं दंग रह गया। वजह, सारा मोहल्ला हमें ‘कोरे कवि’ के नाम से पुकारता था...और यह संबोधन पोपले साहब ने ही बतौर उपाधि हमें प्रदान किया था। सो, मेरा चैंकना स्वाभाविक था। इससे पहले कि मैं कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोल पाता, पोपले साहब फुदक-से पड़े-‘कवि महोदय, पता है मोहल्ले में एक नई पड़ोसन आई है? खूब तारीफ सुन रखी है उसकी...।’ मैंने मुस्कराते हुए कहा-‘शायराबाई...यही नाम है न उसका...? ‘हां, हां, नाम-वाम को छोड़िए, हमें तो यह भी मालूम चला है कि उन्हें भी आपकी तरह कविता-वविता लिखने का शौक है।’ पोपले साहब कुछ यूं बोले मानों वे अभी-अभी शायराबाई की जीवनी रटकर आए हों। मैंने हैरानी से पूछा-‘पोपले साहब, आपने कैसे जाना...’? पोपले साहब कुछ देर मंुह बाये आकाश में ताकते रहे। उनकी शक्ल यूं लग रही थी मानों शायराबाई से उनका कोई पुराना टांका फिट रहा हो और शायद कोई पुराना वाक्या याद आ गया हो। अचानक पोपले साहब ने दाएं-बाएं देखा और फुसफुसाए-‘कवि महोदय, किसी को कानों-कान खबर नहीं होनी चाहिए, तो मैं बताने का तैयार हूं?’ मेरी जिज्ञासा कुलाचे भरने लगी थी-‘आप बेफिक्र रहें।’ ‘मेरी बाई उनके यहां भी चैका-बासन करने जाती है। उसी ने बताया है कि मैडम घंटों कागज पर कुछ लिखती रहती हैं। बीच-बीच में कुछ गुनगुनाती भी हैं। बस समझते देर नहीं लगी। क्योंकि आप भी तो घंटों यूं ही....। ’इतना कहने के साथ ही पोपले साहब खींसें निपोरने लगे। ‘ही...ही...ही...।’ उनके पिचके गालों के भीतर से नकली दांत कुछ पल के लिए यूं झांके मानों फोटो खींचते वक्त फ्लैश चमकता है। पोपले साहब का बोलना जारी था-‘कवि महोदय, हमारे लिए भी कोई अच्छी-सी एक-दो कविताएं-वविताएं लिख दीजिए।’ मैंने आश्चर्य से पूछा-‘क्यों’? उन्होंने कुछ यूं नजरें चुराई जैसे सुहाग की सेज पर दुल्हन सकुचाती है-‘मेरे हिसाब से एक कवि उनका सामीप्य जल्द पा सकता है।’

मोहल्ले के और भी कई लोग मेरे पास कविता लिखवाने आए। हालांकि सबका बहाना अलग-अलग था। किसी का कहना था-‘महोदय, बच्ची को स्कूल में बालसभा के दौरान कविता सुनाने को कहा गया है।’ कोई बोला-‘आपकी कविता की बहुत तारीफ सुन रखी है, इसलिए सोचा चलो एक कविता लिखवाकर ले ली जाए। मौके-बेमौके सुनाने के काम आएगी।’ मुझे समझते देर नहीं लगी कि पोपले साहब की बाई ने ‘किसी से न कहना’ कहते-कहते शायराबाई के कवित्त प्रेम के बारे में मोहल्लेभर में ढिंढोरा पीट डाला है। मेरे पास कुछ ऐसे महाशय भी आए, जो मोहल्ला सुधार समिति के चिपकू पदाधिकारी कहे जाते हैं। खैर मैंने भी सोचा चलो, यह अच्छा अवसर है अपनी कलम भुनाने का। वैसे भी अखबारों और मैग्जीन से बेरंग लौटती कविताओं को खपाने-कमाने का इससे बेहतर मौका भला कहां मिलने वाला था। अगले दिन मैंनेे घी के कनस्तर से एक बोर्ड बनवाकर अपने दरवाजे पर लटका दिया। उस पर बड़े-बड़े लाल-काले अक्षरों में लिखवा दिया था-उचित रेट पर कविता खरीदने के लिए संपर्क करें। पहले आएं और लेटेस्ट कविता पाएं। शायराबाई के अनदेखे हुस्न का जादू मोहल्लेवालों के सिर चढ़कर बोल रहा था। हालांकि अभी तक किसी को भी शायराबाई के हुस्न का दीदार करने का चांस नहीं मिला था। पोपले साहब ने फिजूल की बातों में उलझाकर एक-दो मर्तबा शायराबाई के बुर्के के अंदर झांकने का प्रयास जरूर किया, लेकिन उनकी खूंखार कुतिया के कारण दाल न गल सकी। इक दिन मैंनेे सुना कि पोपले साहब ने गुपचुप ढंग से यह घोषणा कर दी है कि जो शायराबाई की उम्र का राज फाश करेगा वे उसे समिति में कोई बड़ा पद दिलवा देंगे। दरअसल, समिति आयोजनों के नाम पर साल में चार-छह बार चंदा उगाह लेती थी। यह दीगर बात है कि इन आयोजनों में समिति के सदस्यों के अलावा अन्य किसी को घुसने का मौका नहीं दिया जाता था। या यूं कहिए कि पोपले साहब इन आयोजनों को गुप्त मीटिंग का नाम देकर दारू-मुर्गा पार्टी पर बेवजह बोझ डालना मुनासिब नहीं मानते थे। घोषणा के बाद बेरोजगार युवाओं ने सोचा-चलो कमस्कम पार्टियों में शामिल होने का मौका तो मिलेगा। कुछ शरारती लड़कों ने एक-दो बार मौका देखकर शायराबाई का बुर्का खींचने का प्रयास किया, लेकिन हर बार उनकी कटखनी कुतिया मार्ग में रोड़ा बनकर सामने आ अड़ी। एक रोज मैं किराना खरीदने करोड़ीमल की दुकान पर पहुंचा। देखा करोड़ीमल मुंह लटकाए बैठे हैं। बात-बात पर खींसें निपोरने वाले करोड़ीमल का लटका हुआ मुंह देखकर मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैंने वजह पूछी। मेरा पूछना क्या था करोड़ीमल सुबक पड़े- ‘हाय, मैं तो कहीं का नहीं रहा...? बेचारी इतनी कम उम्र में चल बसी। अब मुझे कौन पूछेगा...? हाय मेरी शायरा...।’ इतना सुनना था कि मेरा तो दिल धक्क से रह गया। ‘शायराबाई तुम नहीं रहीं? अब मेरा क्या होगा...कौन खरीदेगा मेरी कविताएं...?’ करोड़ीमल ने जब मुझे यह बुदबुदाते सुना तो वे बिफर पड़े-‘आपके मुंह में कीड़े पड़ें...शायराबाई सैकड़ों साल जियें। मैं तो शायराबाई की प्यारी कुतिया के बारे में कह रहा था। अब वो नहीं रही तो मैं किसको बिस्कुट खिलाने जाऊंगा?’ करोड़ीमल की बात सुनकर पहले तो मुझे बेहद खीज पैदा हुई क्योंकि एक बारगी तो मेरी भी जान-सी निकल गई थी। फिर संतोष की सांस लेते हुए बिना कुछ कहे मैं वहां से निकल आया।

शायराबाई की कुतिया के मरने की खबर मौहल्ले में आग की भांति फैली। देखते ही देखते मौहल्लेभर के हर उम्र लोग उनके घर यूं लपके मानों उन्हें इसी घड़ी का इंतजार रहा हो। मन मेरा भी नहीं माना। मैंने भी शायराबाई के घर की ओर कूच किया। वहां जाकर देखा तो लोग यूं मुहं लटकाए रूंआसे खड़े थे मानों कब कोई सहानुभूतिपूर्वक उनके कांधे पर हाथ रखे और वे फूटफूटकर रो सकें। जो लोग अपने घर के कामकाज में हाथ बंटाने से शर्म महसूस करते थे वे कुतिया के जनाजे का इंतजाम करने में गौरवांवित महसूस कर रहे थे। हालांकि कुतिया का मातम तो सिर्फ एक बहाना था। सब इस चक्कर में इकट्ठे हुए थे शायद इस दुखद घड़ी में ही सही, लेकिन कमस्कम एक बारगी शायराबाई की सूरत देखने का मौका मिल जाए। लोगों को शायराबाई का बुर्का एक जबरिया सामाजिक प्रथा- सा नजर आने लगे था। वे जो अपनी बहू-बेटियों का अकेले घर से निकलना भी उचित नहीं मानते थे, बुर्के को शायराबाई की आजादी पर पाबंदी मानने लगे थे। लोगों ने काफी तांक-झांक की लेकिन शायराबाई का बुर्का टस से मस नहीं हुआ। हालांकि कुछ लोग इस बात से ही खुश थे कि जनाजे में शामिल होने पर उन्हें शायराबाई के मुख से एक शब्द ही सही, लेकिन प्यार से ‘शुक्रिया’ सुनने का सौभाग्य तो मिला। ऐसे लोग शायराबाई के मिलनसार स्वभाव की तारीफ करते नहीं थक रहे थे।अगले दिन पोपले साहब ने खुलेआम घोषणा कर दी-जो भी शायराबाई की उम्र पहेली को बूझ देगा, वे समिति के मुखिया का पद उसे सौंप देंगे। इस घोषणा ने मानों युवाओं में क्रांति-सी ला दी। वे दिन-रात, मौके-बेमौके इसी फिराक में रहते कि किसी तरह से शायराबाई की झलक देखने का अवसर मिल जाए। उधर, मेरी उम्र के लोगों में भी पद का लालच कुलाचें भरने लगा था। वजह, जब से समिति का गठन हुआ था, तब से सिवाय इक्के-दुक्के जुगाड़ू लोगों के कोई भी उसमें घुसने में कामयाब नहीं हो पाया था। एक रोज अमावस्या की सर्द रात में अचानक शायराबाई के घर से शोर उठा। वे जोर-जोर से ‘चोर-चोर’ चिल्ला रही थीं। बमुश्किल दस मिनट लगे होंगे कि शायराबाई के चाहने वाले दौड़ते-भागते वहां जा पहुंचे। यूं लगा मानों वे रातभर जागते हुए इसी घटना का इंतजार कर रहे हों ताकि उन्हें अपनी बहादुरी दिखाने का मौका मिल सके। अचानक पोपले साहब चीखे-‘वो देखो, उस छत पर... चोर...?’ इतना सुनना था कि लोग छत की ओर ऐसे भागे जैसे रणभूमि में कोई सिपाही दुश्मन की ओर लपकता है। लोगों ने आव देखा न ताव चोर पर दनादन लात-घूंसे बरसाने शुरू कर दिए। पहले हम मारेंगे के हालात निर्मित होने से कई आपस में ही भिड़ बैठे। चोर ने मौके का लाभ उठाया और वहां से भाग निकला। अगले दिन मैं घर में बिस्तर पर पड़ा-पड़ा कराह रहा था। दरअसल, शायराबाई के घर चोर नहीं मैं गया था। मैं दर्द से कम शायराबाई की उम्र से ज्यादा दुखी था। पोपले साहब घर पर आए और बोले-‘महोदय, मैंने कल आपको पहचान लिया था, लेकिन इस वजह से चुप रहा ताकि शायराबाई की उम्र का राज हम दोनों के बीच ही रहे।’ इतना कहकर उन्होंने यूं सीना ताना मानों शायराबाई की उम्र कोई पाकिस्तानी किला हो, जिसे उन्होंने अकेले फतह कर लिया हो। मैं चुप रहा। वे गिड़गिड़ाने की मुद्रा में थे- ‘प्लीज जल्द बताइए, सब्र का बांध टूटा जा रहा है...?’ मैं अब भी खामोश रहा। वे नाराज हो गए-‘महोदय, आप एक दोस्त के साथ गद्दारी कर रहे हैं...? आप मुझे शायराबाई की उम्र बता दीजिए, मैं भरोसा दिलाता हूं कि मुखिया का पद आपको सौंप दूंगा।’ मैं रात की घटना के बारे में सोचने लगा। शायराबाई बहुत देर तक कुछ लिखती रहीं और फिर बिस्तर पर पहुंची। जैसे ही उन्होंने बुर्का उतारा मैं दंग रह गया। बुर्के के पीछे एक 50 साल की औरत थी। मेरे ओंठ थम न सके और घायल परिंदे की भांति फड़फड़ा उठे-‘हें! ऐ भगवान, यह क्या देख रहा हूं...?’ शायराबाई ने पलटकर खिड़की की ओर ताका। जैसे ही उनकी नजर मेरी आंखों से टकराई वे चीख पड़ीं-‘चोर-चोर।’ अगले दिन पोपले साहब फिर घर आए। वे बहुत उदास थे। पूछने पर सुबक पड़े-‘महोदय, शायराबाई अब हमारे बीच नहीं रहीं...?’ मैं सन्न रह गया-‘क्या हुआ उन्हें...?’ पोपले साहब ने आंसू पोंछे और इतना कहते हुए निकल गए-‘उनका किसी दूसरे शहर में तबादला हो गया है। हम सब उन्हें स्टेशन तक छोड़कर आ रहे हैं।’ मैंने खिड़की से झांककर गली में देखा-घरों की खिड़कियां बंद थीं। हमने भी राहत की सांस ली और अपनी खिड़की की चटखनी लगा दी।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

goyal : aapka yeh vyang aacha laga isi prakar or vyang likhen.