सोमवार, 7 दिसंबर 2009
अजय सिन्हा (निर्देशक, केसरिया बालम आवो हमारे देस)
मैं रियलिटी में बिलीव करता हूं
अमिताभ फरोग
जिस ‘सिनेमाई रंग-कलेवर और ऊर्जा’ के लिए सिनेप्रेमी मधुर भंडारकर को पहचानते हैं, टेलीविजन पर ठीक वैसी ही ‘साख’ अजय सिन्हा की है। एक्सट्रा मटेरियल रिलेशनशिप जैसे असोशल; किंतु यथार्थपरक विषय पर ‘हसरतें’ जैसा विचारोत्तक सीरियल रचने वाले अजय सिन्हा इस बार ‘सहारा वन चैनल’ पर ‘केसरिया बालम आवो हमारे देस’ लेकर आए हैं, जिसमें हादसों से उपजे ‘जीवन-संघर्ष’ को कम्पलीट इमोशन के संग जिया गया है।
अभिनय और निर्देशन; दोनों अलग-अलग ‘कर्म-विधाएं’ हैं। दोनों को अपने अंदर साधे रखना; वो भी सम्पूर्ण मौलिकता के संग, एक कड़ी चुनौती से कम नहीं आंका जा सकता। अजय सिन्हा समय-समय पर दोनों को जीते हैं, मौलिकता के संग प्रस्तुत करते हैं।
इससे पहले कि; ‘केसरिया बालम...’ और जीनत अमान अभिनीत फिल्म‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में समानता? का प्रश्न खड़ा होता; वे स्वयं स्पष्ट कर देते हैं-‘ शुरुआत में ऐसा आभास हो सकता है कि; केसरिया...और सत्यम शिवम...का प्लॉट कहीं एक तो नहीं, लेकिन ऐसा नहीं है। केसरिया...की कहानी मेरे मित्र रघुवीर शेखावत ने करीब 4-5 साल पहले सुनाई थी। कंसेप्ट दिल को छू गया। बस तभी निश्चय कर लिया था कि; इसे टेलीविजन पर साकार करना है।’
टेलीवजन पर देहाती विषयों के बढ़ते क्रेज पर श्री सिन्हा साफगोई से बोलते हैं-‘मेरा मानना है कि; टेलीविजन पर सास-बहू या धनाढ्य फैमिली की जगह अगर ग्रामीण परिवेश ले रहा है, तो इसे एक नए अध्याय के रूप में देखा जाना चाहिए। यह लोगों के बदलते नजरिये की ओर इंगित करता है।’
श्री सिन्हा ‘केसरिया बालम...’ को देहाती माटी से उपजे दूसरे सीरियल्स से कुछ यूं खास बताते हैं-‘इसमें हमने सिर्फ एक इश्यू नहीं उठाया, बल्कि इसमें राजस्थानी लोक संस्कृति, गीत-संगीत, सामाजिक विद्रूपताएं-विविधताएं सब समेटने की कोशिश की है। इसमें एक ऐसी लड़की की व्यथा है, जो ब्याह के लिए कई बार रिजेक्ट कर दी जाती है। यह एक आम लड़की का परिचायक है। केसरिया...में इमोशन हैं, कल्चर है और हमारी टीम का बेहतर प्रोफेशनल वर्क।’
‘हत्या चक्र’ जैसी लो-प्रोफाइल फिल्म का निर्देशन कर चुके अजय कहते हैं-‘टेलीविजन और सिनेमा दोनों की ठीक वैसी स्थिति है जैसे सागर और तालाब, लेकिन दोनों की मझधार में आप तभी संघर्ष कर सकते हैं; लहरों को चीरकर किनारे पर आ सकते हैं, जब आप एक उम्दा तैराक हों। कह सकते हैं कि; फिल्म में अधिक मजा है, लेकिन टेलीविजन का भी अपना एक सुख है। मैं मजा और सुख दोनों का आनंद उठाता हूं।’
अभिनय और निर्देशन दोनों में कहां ‘चैन’ महसूस करते हैं? अजय तर्क देते हैं-‘दोनों अलग-अलग विधाएं हैं और पूरा समर्पण-ईमानदारी मांगती हैं। हां, निर्देशन में कुछ जिम्मेदारियां अधिक बढ़ जाती हैं। फाइनेंसिशल प्रेशर होता है, आउटपुट समय पर देने का कमिटमेंट होता है। दोनों में एकाग्रता की आवश्यकता होती है, लेकिन निर्देशन में कभी-कभी ये पे्रशर उसे भग्न भी कर देते हैं। हालांकि यह सच है कि मैं अभिनेता बनना चाहता था, लेकिन अकसर महसूस होता रहा कि; मैं कैमरे के पीछे रहकर कुछ बेहतर आउटपुट दे सकता हूं।’
अजय सिन्हा किस विषय में सहजता महसूस करते हैं? वे दो टूक कहते हैं-‘मैं हर विषय पर कार्य करना चाहता हूं। हसरतें अगर एक्सट्रा मटेरियल रिलेशनशिप पर निर्मित था, तो समय अल्जाइमर रोग पर आधारित था। जुस्तजू एक ऐसे आदमी की कहानी थी, जो अपनी साली से अट्रेक्ट था। वहीं केसरिया..एक अलग विषय को जीता है। मैं प्रमाणिकता में बिलीव करता हूं। मैं जो भी कार्य करूं, वह रियल दिखाई देना चाहिए, महसूस होना चाहिए।’
महबूब खान, ऋषिकेश मुखर्जी, बिमल रॉय और राज कपूर जैसे लीजेंड डायरेक्टर्स से प्रभावित अजय सिन्हा नसीहत देते हैं-‘मैं हूं क्यों, हर किसी को एक नई सोच के साथ कार्य करना चाहिए, तभी एक नई राह बनेगी, दिशा नजर आएगी।’
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