सोमवार, 9 मार्च 2009


मेलों की ऊर्जा से
जी उठा गौहर महल

अमिताभ फरोग
जोश और उल्लास का प्रतीक होते हैं मेले। मेलों में ऊर्जा निहित होती है, जो सकारात्मक बदलाव का सबब बन सकती है। कैसे? अगर इसे देखना है, तो भोपाल के गौहर महल चले आइए! जिन्होंने पहले कभी इस ऐतिहासिक इमारत को नहीं देखा, वे बार-बार यहां आना चाहेंगे।...और जो वर्षों पहले कभी यहां आए हैं, वे फिर से सांस भरते अपने गौहर महल को देखकर अच्छा महसूस करेंगे। दरअसल, ऐतिहासिक इमारतों को ‘अर्बन हाट’ में बदलने की अनूठी कोशिश गौहर महल के लिए संजीवनी साबित हुई है। यहां लगने वाले मेलों ने ‘एक पंथ-दो काज’ वाली कहावत को सार्थक किया है। पहला-शिल्पकारों और अन्य विधाओं से जुड़े कलाकारों को व्यापक बाजार मुहैया कराया है-दूजा सैलानियों की नजर में आने से गौहर महल का पुराना वैभव फिर से लौट आया है। यह ठीक वैसी ही स्थिति है, जैसे किसी उपेक्षित बुजुर्ग को सम्मान-प्यार मिल जाना।

मेलों की ऊर्जा से फिर जी उठा है गौहर महल। यहां लगने वाले मेलों का अंदाज-ए-बयां कुछ और ही।...और व्यवस्थापकों की कार्य में डूब जाने की प्रवृत्ति, सरकार की पहल और अपनी धरोहर से प्यार करने वालों की कोशिशों ने गौहर महल के अस्तित्व को बिखरने से बचा लिया है। आमतौर पर अब, जब कभी भी गौहर महल का जिक्र होता है, तो वहां के मेले जेहन में रोशनी-से जगमगा उठते हैं। लेकिन आज से 8-10 साल पहले क्या कोई गौहर महल झांकने जाता था? निश्चय ही अगर गौहर महल को ‘अर्बन हाट’ के रूप में न बदला जाता, तो उसके ऐतिहासिक संदर्भों को समझने के लिए कागजों की ही मदद लेनी पड़ती, लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं। मेला देखने के बहाने ही सही, पिछले कुछेक सालों में गौहर महल की दहलीज पर लाखों लोग चढ़े...पहली बार, दूसरी बार और कई बार स्थानीय और बाहरी सैलानियों का यहां आना हुआ। इससे पहले गौहर महल अतिक्रमण की चपेट में था और शराबियों-जुआरियों और अपनी धरोहर की कद्र न करने वालों के कुकृत्यों से शर्मसार हो रहा था। गौहर महल का हरेक कोना खुद को बचाने की गुहार करता प्रतीत होता था।
यूं ही नहीं आता बदलाव
भारत सरकार ने जब ऐतिहासिक इमारतों को संरक्षण देने के मकसद से नई कार्ययोजना बनाई, तब प्रदेश सरकार ने अनूठी पहल की और गौहर महल को अर्बन हाट में बदलने पर विचार किया। इस तरह दोनों सरकारों के सहयोग से गौहर महल में देश का पहला ‘हेरिटेज-अर्बन हाट’ शुरू हुआ। आप प्रत्यक्ष जाकर देखिए, कि मेलों के साथ धरोहरों को बचाने जागी नई चेतना ने गौहर महल में कितनी स्फूर्तिभर दी है। गौहर महल की देखरेख में लगे अफसरों और कर्मचारियों का जोश और बेहतर प्रबंधन के चलते यहां के पट सैलानियों के स्वागत को आतुर रहते हैं। गौहर महल के मेले सबक हैं, उन हाट बाजारों के लिए जिनके निर्माण पर करोड़ों रुपए फूंके गए, बावजूद उनकी चमक फीकी ही साबित हुई है। वहीं यहां के सफल मेलों ने ऐतिहासिक इमारतों और धरोहरों को बचाने की एक नई सोच को जन्म दिया है। कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
क्या मेलों में वाकई ऊर्जा निहित होती है, जो परिवर्तन ला सकने में सक्षम है? इस सवाल का जवाब ढूंढना है तो भोपाल हाट और गौहर महल का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए। राजधानी की एक बड़ी झुग्गी बस्ती को विस्थापित कर निर्मित कराए गए भोपाल हाट का उद्घाटन 28 फरवरी, 2005 में सरस मेले से हुआ था। दिल्ली हाट की कार्बन कापी भोपाल हाट लोकप्रियता के मामले में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। यह हाट ‘पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग, मध्यप्रदेश’ की देखरेख में चल रहा है। उधर, गौहर महल को ‘मध्यप्रदेश हस्तशिल्प और हथकरघा विभाग’ पोषित कर रहा है। पहली इमारत अत्याधुनिक है, 21वीं सदी की भवनकला का अद्भुत निर्माण है, वास्तुशिल्प में 16 शृंगारित है....और सैलानियों को खींचने का माद्दा रखती है, फिर भी बुझी-बुझी-सी जान पड़ती है। दूजी-भोपाल की पहली महिला शासक कुदसिया बेगम, जिन्हें गौहर बेगम भी कहते थे-ने 1820 में बनवाया था, वर्षों मृतप्राय-सरीखी पड़ी रही...फिर से सांस भरने लगी है। मुगल और हिंदू वास्तुशिल्प से शृंगारित गौहर महल और आधुनिक भोपाल हाट में ऐसा क्या अंतर है, जो एक के उत्थान और दूसरे के ‘पतन’ का कारण बना? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना अत्यंत आवश्यक है। दोनों का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाए, तो जवाब बहुत आसानी से मिल जाएगा। दोनों ही हाट का उद्देश्य ग्रामीण उत्पादों को बाजार मुहैया कराना है, लेकिन भोपाल हाट इसके लिए प्रतिबद्ध है, जबकि गौहर महल इस बाध्यता से मुक्त है। लेकिन यह भी एक बड़ा प्रश्न है दोनों रोजगार के सरोकार से पूर्णत: संलिप्त हैं, तो विषमताएं घर क्यों कर रही हैं? भोपाल हाट में दाल-दलिया का बाजार लगाना प्रशासनिक विवशता हो सकती है, लेकिन इसे सिद्धांत के रूप क्यों भोगा जा रहा है? दाल-दलिया के आठ-दस पैकेट बेचकर भला कौन दो-जून की रोटी कमा सकता है? जाहिर है कमाई का गणित कुछ और है! दूसरी बड़ी चूक यहां प्रबंधकीय-व्यवस्थाओं की दिखाई पड़ती है, जो ‘फ्लाप’ मेलों का कारण बनी। खैर, भोपाल हाट का दुर्भाग्य एक अलग विषय है, मुख्य मुद्दा मेले से चमकी गौहर महल की किस्मत का है। करीब 150 साल तक गौहर महल दुर्भाग्य को जीता रहा। आंगन-छत, दरो-दीवार पर ‘कालिख-से चिपके’ अतिक्रमणकारियों ने अपनी धरोहर को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ...और निश्चय ही अगर गौहर महल को ‘अर्बन हाट’ में के रूप में सहेजा-संवारा न जाता तो यह धरोहर अपनी अंतिम सांसें गिन रही होती।
गौहर महल का स्वर्णिम काल
इस इमारत को करीब 17 साल पहले ‘मध्यप्रदेश हस्तशिल्प और हथकरघा विकास विभाग’ को सुपुर्द किया गया था। यहां 92 से 2004 तक प्रतिवर्ष दो-तीन मेले लगाए जाते रहे। प्रति मेले में प्रतिदिन 300-400 सैलानी पहुंचते थे। हर मेला औसतन 10-12 दिन लगता रहा है। यानी इस तरह हजारों लोग गौहर महल पहुंचे। सैकड़ों लोगों ने पहली बार भोपाल के नवाबी वैभवकाल से सीधे साक्षात्कार किया। 1 नवंबर, 06 का दिन गौहर महल के लिए नई सुबह लेकर आया, जब मध्यप्रदेश की स्थापना के ‘स्वर्णजयंती महोत्सव’ के दौरान गौहर महल के मेलों ने एक नई अंगड़ाई ली। हालांकि वर्ष, 2004 में जब गौहर महल का कायाकल्प किया गया, तब से ही सकारात्मक परिवर्तन की शुरुआत मानी जा सकती है। भारत के रेलमंत्री लालूप्रसाद यादव ने अपने जिस प्रबंधकीय कला-कौशल के बूते रेलवे को मुनाफे का उपक्रम बनाया, यात्रियों को हवाई जहाज से उतारकर रेलों में बैठाया, रेलवे के प्रति यात्रियों में विश्वास पैदा किया, ठीक वैसा ही उदाहरण यहां के लिए भी दिया जा सकता है। मेलों को कैसे आकर्षक बनाया जाए, शिल्पकारों और अन्य लोगों के लिए स्वरोजगार के नए साधन-संसाधन कैसे विकसित किए जाएं, ग्रामीण और परंपरागत उत्पादों को राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय बाजार कैसे मुहैया कराया जाए...और इसके संग-संग मेलों की ‘उर्वरा शक्ति’ का उपयोग करते हुए गौहर महल को कैसे संरक्षित रखा जाए? ऐसे तमाम सवालों का सटीक जवाब ढूंढ निकाला गया, बेहतर प्रबंधन से। गौहर महल समय-समय पर स्वयंसेवी संस्थाओं को भी मेला आयोजित करने के लिए दिया जाता है। इसके एवज में उनसे व्यवस्था और रखरखाव के नाम पर शुल्क लिया जाता है। यहां स्थायीतौर पर दो शोरूम संचालित हो रहे हैं-मृगनयनी प्लस और ट्राइब्स इंडियन। ट्राइब्स इंडिया से बतौर किराया पांच हजार रुपए लिया जाता है।
बेहतर प्रबंधन का इससे सशक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है कि जहां हर मेले से आगंतुक एक-डेढ़ करोड़ रुपए की चीजें खरीदकर स्वरोगारियों के विकास का रास्ता प्रखर कर रहे हैं, वहीं उनकी नजरें फिर से गौहर महल के सौंदर्य पर इनायत हुई हैं। 2004 के बाद से अब तक यहां औसतन हर साल 14-15 मेले लगते आ रहे हैं। इनमें रोजाना 800 से 1000 लोग पहुंचते हैं। शनिवार और रविवार को यह संख्या तीन-चार हजार के करीब होती है। खुश होने की एक वजह और है कि इन सैलानियों में प्रतिदिन 15-20 परदेसी भी होते हैं, जो बसा ले जाते हैं गौहर महल के अभूतपूर्व सौंदर्य को अपने दिल में।
ऐसी लागी लगन
अच्छा व्यवहार दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाता है। यहां के कर्मचारियों ने इसी सोच को बेहतर ढंग से भुनाया है। कामता प्रसाद पटेल, ये पिछले महीने ही यहां नियुक्त हुए हैं। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं, लेकिन व्यवहार और कार्य में अव्वल। मेला घूमने आए लोगों की बेतहाशा पूछताछ और वजह-बेवजह सहायता मांगने की आदत के बावजूद कामता झुंझलाते नहीं हैं। वे हंसते हुए सेवा-भाव में लग जाते हैं।...और उस व्यक्ति के प्रबंधकीय कला-कौशल को शायद ही आप नजरअंदाज कर पाएं। सुदेश श्रीवास्तव। मेले के प्रभारी। मेला-आयोजनों के दौरान ये 10-12 घंटे नौकरी करते मिल जाएंगे।
एक विवाह ऐसा भी
यह प्रबंधकीय कला-कौशल ही तो था कि ‘राजश्री’ जैसे बड़े फिल्म प्रोडक्शन को गौहर महल तक खींच लाया गया। बहुत कम लोग जानते होंगे कि गौहर महल में शूटिंग करने के एवज में राजश्री ने प्रतिदिन 50 हजार रुपए दिए थे। शूटिंग छह दिन चली थी। इस पैसे को टूरिज्म इनकम के रूप में भी तौला जा सकता है। फिल्म के सहायक कलाकार कुनाल कुमार कहते हैं-मैंने भोपाल के बारे में खूब सुना था, लेकिन गौहर महल से अनजान था। मैंने देखा है कि इस इमारत के पुराने वैभव को लौटाने कारीगरों ने कितनी मेहनत की होगी। शूटिंग से फुर्सत के दौरान मैं एक-दो बार मेला घूमने भी आया। वाकई मेलों ने भी इस ऐतिहासिक स्थल को बचाने में सार्थक भूमिका निभाई है।
हम ही तो हैं गाइड
मेलों में आए शिल्पियों और अन्य स्वरोजगारियों के स्वागत का अंदाज गौहर महल सरीखी अन्य ऐतिहासिक इमारतों के बचाने में सार्थक फार्मूला साबित हो सकता है। इन्हें सबसे पहले गौहर महल के इतिहास से रूबरू कराया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि कैसे अपनी धरोहर बचाई और संरक्षित रखी जा सकती है।
एक प्रयास दतिया में भी
बुंदेलखंड की ऐतिहासिक नगरी दतिया का एक प्राचीन तालाब भी ऐसे ही प्रयास से जी उठा है। तांत्रिक अनुष्ठान के लिए दुनियाभर में चर्चित पीताम्बरा पीठ से सटा हुआ है प्राचीन तालाब तरण तारण। अतिक्रमण और जल स्त्रोतों में अवरोध होने का नतीजा यह तालाब दशकों तक भोगता रहा। पिछले साल शासन/ प्रशासन के सकारात्मक प्रयासों से अंगूरी बैराज(लघु बांध) से यहां पाइप लाइन डाली गई। तालाब में पानी भरा, तो लोगों वर्षों इसे सूखता देखते आ रहे लोगों की आंखों में पानी भर आया। समुचित प्रयास हुए। तालाब के घाट संवारे गए और उसे पर्यटन स्थल के रूप में हल्का-फुल्का विकसित किया गया। परिणाम आज वहां बोटिंग हो रही है, लोगों में तालाब बचाने की प्रेरणा जागी है और कइयों को रोजगार मिल गया है। गौहर महल और तरण तालाब ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें अपनी धरोहरों का वैभव लौटाने, उनमें नई ऊर्जा भरने का अनूठा प्रयास झलकता है।

3 टिप्‍पणियां:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

जितनी मेहनत का खुलासा आपने किया है

उसे करने में भी तो मेहनत लगी है

चाहे वो मानस की और कलम की है

या है सीधे कीबोर्ड की

पर मेहनत के आगे हम नत हैं

मेहनत ही फल तक पहुंचाती है

सुफलता के आयाम दिखलाती है।

संगीता पुरी ने कहा…

सुंदर जानकारी से भरा आलेख .... मेले से लोगों को इतना फायदा हो रहा है ... जानकर खुशी हुई ... क्‍या अच्‍छा होता कि हर क्षेत्रों मे ऐसे मेलों का आयोजन किया जाता .... होली की ढेरो शुभकामनाएं।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत रोचक और सार गर्भित जानकारी...
आपको होली की शुभकामनाएं...

नीरज